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प॒वित्रे॑ स्थो वैष्ण॒व्यौ᳖ सवि॒तुर्वः॑ प्रस॒व उत्पु॑ना॒म्यच्छि॑द्रेण प॒वित्रे॑ण॒ सूर्य्य॑स्य रश्मिभिः॑। देवी॑रापोऽअग्रेगुवोऽअग्रेपु॒वोऽग्र॑ऽइ॒मम॒द्य य॒ज्ञं न॑य॒ताग्रे॑ य॒ज्ञप॑तिꣳ सु॒धातुं॑ य॒ज्ञप॑तिं देव॒युव॑म् ॥१२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प॒वित्रे॒ऽइति॑ प॒वित्रे॑। स्थः॒। वै॒ष्ण॒व्यौ᳖। स॒वि॒तुः। वः॒। प्र॒स॒व इति॑ प्र॒ऽस॒वे। उत्। पु॒ना॒मि॒। अच्छि॑द्रेण। प॒वित्रे॑ण। सूर्य्य॑स्य। र॒श्मिभि॒रिति॑ र॒श्मिऽभिः॑। देवीः॑। आ॒पः॒। अ॒ग्रे॒गु॒व॒ इत्य॑ग्रेऽगुवः। अ॒ग्रे॒पु॒व॒ इत्य॑ग्रेऽपुवः॒। अग्रे॑। इ॒मम्। अ॒द्य। य॒ज्ञम्। न॒य॒त॒। अग्रे॑। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। सु॒धातु॒मिति॑ सु॒धाऽतु॑म्। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ यज्ञऽप॑तिम्। दे॒व॒युव॒मिति॑ देव॒ऽयुव॑म् ॥१२॥

यजुर्वेद » अध्याय:1» मन्त्र:12


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अग्नि में जिस द्रव्य का होम किया जाता है, वह मेघमण्डल को प्राप्त होके किस प्रकार का होकर क्या गुण करता है, इस बात का उपदेश ईश्वर ने अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् लोगो ! तुम जैसे (सवितुः) परमेश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुस इस संसार में (अच्छिद्रेण) निर्दोष और (पवित्रेण) पवित्र करने का हेतु जो (सूर्य्यस्य) सूर्य्य की (रश्मिभिः) किरण हैं, उन से (वैष्णव्यौ) यज्ञसम्बन्धी प्राण और अपान की गति तथा (पवित्रे) पदार्थों के भी पवित्र करने में हेतु (स्थः) हों और जैसे उक्त सूर्य्य की किरणों से (अग्रेगुवः) आगे समुद्र वा अन्तरिक्ष में चलनेवाले (अग्रेपुवः) प्रथम पृथिवी में रहनेवाली सोम ओषधि के सेवन तथा (देवीः) दिव्यगुणयुक्त (वः) वह (आपः) जल पवित्र हों, वैसे (नयत) पवित्र पदार्थों का होम अग्नि में करो, वैसे ही मैं भी (अद्य) आज के दिन (इमम्) इस (यज्ञम्) पूर्वोक्त क्रियासम्बन्धी यज्ञ को प्राप्त करके (अग्रे) जो प्रथम (सुधातुम्) श्रेष्ठ मन आदि इन्द्रिय और सुवर्ण आदि धनवाला (यज्ञपतिम्) यज्ञ का नियम से पालक तथा (देवयुवम्) विद्वान् और श्रेष्ठ गुणों को प्राप्त होने वा उनका प्राप्त कराने (यज्ञपतिम्) यज्ञ की इच्छा करनेवाला मनुष्य है, उसको (उत्पुनामि) पवित्र करता हूँ ॥१२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जो पदार्थ संयोग से विकार को प्राप्त होते हैं, वे अग्नि के निमित्त से अतिसूक्ष्म परमाणुरूप होकर वायु के बीच रहा करते हैं और कुछ शुद्ध भी हो जाते हैं, परन्तु जैसी यज्ञ के अनुष्ठान से वायु और वृष्टि, जल की उत्तम शुद्धि और पुष्टि होती है, वैसी दूसरे उपाय से कभी नहीं हो सकती, इससे विद्वानों को चाहिये कि होमक्रिया से शुद्ध किये वायु, अग्नि, जल आदि पदार्थ वा शिल्पविद्या से अच्छी-अच्छी सवारी बना के अनेक प्रकार के लाभ उठावें अर्थात् अपनी मनोकामना सिद्ध करके औरों की भी कामनासिद्धि करें। जो जल इस पृथिवी से अन्तरिक्ष को चढ़कर, वहाँ से लौटकर, फिर पृथिवी आदि पदार्थों को प्राप्त होते हैं, वे प्रथम और जो मेघ में रहनेवाले हैं, वे दूसरे कहाते हैं। ऐसी शतपथ-ब्राह्मण में मेघ का वृत्र तथा सूर्य्य का इन्द्र नाम से वर्णन करके युद्धरूप कथा के प्रकाश से मेघविद्या दिखलाई है ॥१२॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अग्नौ हुतं द्रव्यं मेघमण्डलं प्राप्य कीदृशं भवतीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(पवित्रे) पवित्रकरणहेतू प्राणापानगती (स्थः) भवतः। अत्र व्यत्ययः (वैष्णव्यौ) यज्ञस्येमौ व्याप्तिकर्त्तारौ पवनपावकौ तौ (सवितुः) जगदुत्पादकस्येश्वरस्य (वः) ताः। अत्र पुरुषव्यत्ययः (प्रसवे) उत्पन्नेऽस्मिन् जगति (उत्) धात्वर्थे। उदित्येतयोः प्रातिलोम्यं प्राह (निरु꠶१।३) (पुनामि) पवित्रीकरोमि (अच्छिद्रेण) छिद्ररहितैः (पवित्रेण) शुद्धिकरणहेतुभिः (सूर्य्यस्य) प्रत्यक्षलोकस्य (रश्मिभिः) किरणैः (देवीः) दिव्यगुणयुक्ताः। अत्र सुपां सुलुग् [अष्टा꠶७.१.३९] इति पूर्वसवर्णादेशः (आपः) जलानि (अग्रेगुवः) अग्रे समुद्रेऽन्तरिक्षे गच्छन्तीति ताः (अग्रेपुवः) प्रथमां पृथिवीस्थसोमौषधिं सेविकाः (अग्रे) पुरःसरत्वे क्रियासम्बन्धे (इमम्) प्रत्यक्षम् (अद्य) अस्मिन्नहनि (यज्ञम्) पूर्वोक्तम् (नयत) प्रापयत (अग्रे) (यज्ञपतिम्) यज्ञस्यानुष्ठातारं स्वामिनम् (सुधातुम्) शोभना धातवः शरीरस्था मन-आदयः सुवर्णादयो वा यस्य तम् (यज्ञपतिम्) यज्ञस्य कामयितारम् (देवयुवम्) देवान् विदुषो दिव्यगुणान् वा यौति प्राप्नोति प्रापयतीति वा तम् ॥ अयं मन्त्रः (शत꠶१।१।३।१-७) व्याख्यातः ॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वांसो ! यथा सवितुः परमेश्वरस्य प्रसवेऽस्मिन् संसारेऽच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्य्यस्य रश्मिभिः पवित्रे शुद्धौ वैष्णव्यौ पवनपावकौ स्थो भवतः। यथा चैतैरग्रेगुवोऽग्रेपुवो [वः] देवीरापः पवित्रा भवेयुस्तथा शुद्धानि द्रव्याण्यग्नौ नयत प्रापयत तथैवाहमद्येमं यज्ञमग्रे नीत्वाऽग्रे सुधातुं यज्ञपतिं देवयुवं यज्ञपतिं चोत्पुनामि ॥१२॥
भावार्थभाषाः - अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। ये पदार्थाः संयोगेन विकारं प्राप्नुवन्ति। अग्निना छिन्नाः पृथक् पृथक् परमाणवो भूत्वा वायौ विहरन्ति ते शुद्धा भवन्ति यथा यज्ञानुष्ठानेन वायुजलानामुत्तमे शुद्धिपुष्टी जायेते। न तथाऽन्येन भवितुमर्हतः तस्माद् होमक्रियाशुद्धैर्वाय्वग्निजलादिभिः शिल्पविद्यया यानानि साधयित्वा कामनासिद्धिं कुर्य्युः कारयेयुश्च या आपोऽस्मात् स्थानादुत्थाय समुद्रमन्तरिक्षं गच्छन्ति ततः पुनः पृथिव्यादिपदार्थानागच्छन्ति। ताः प्रथमाः संख्यायन्ते या मेघस्थास्ता द्वितीया इति ॥ शतपथब्राह्मणे मेघस्य वृत्रस्य सूर्य्यलोकस्य च युद्धाख्यायिकयाऽस्य मन्त्रस्य व्याख्याने मेघविद्योक्ता ॥१२॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. अग्नीच्या साह्याने पदार्थांचा संयोग होऊन त्यांच्यात परिवर्तन होते. ते अतिसूक्ष्म परमाणू बनून वायूत राहतात व काही शुद्ध होतात. यज्ञामुळे जशी वायू व पर्जन्याची शुद्धी आणि पुष्टी होते तशी दुसऱ्या कोणत्याही उपायाने होऊ शकत नाही. त्यासाठी विद्वानांनी यज्ञक्रिया, वायू, अग्नी, जल इत्यादी पदार्थांनी किंवा शिल्पविद्येद्वारे चांगली याने तयार करून अनेक प्रकारे लाभ करून घ्यावा आणि आपली व इतरांची कामनाही पूर्ण करावी. जे जल पृथ्वीवरून अंतरिक्षात जाते व पुन्हा पृथ्वीवर येते त्याला प्रथम जल असे म्हटले जाते. जे मेघात राहते ते द्वितीय जल होय. शतपथ ब्राह्मणात मेघ म्हणजेच वृत्र व सूर्य म्हणजे इंद्र अशा उपमेने त्यांचे युद्धरूपी वर्णन करून मेघविद्या प्रकट केलेली आहे.